Wednesday, February 23, 2011

मैं ...मैं हूँ तो मेरा मन, अब कहाँ मेरा ? - अनुपम कर्ण






वख्त दर वख्त दरकता है एक निशाँ मेरा
किसने आग़ी लगाई जो जल गया एक जहां मेरा


मेरी बंसी ने ही छीनी है मेरी आवाज को
गो तेरे किस्से बन गए एक नुमायाँ मेरा

मेरी रूहों से छलकती है तेरी आहों की खनक
वो तेरी खामोश सी नज़रें और एक अंदाज़--बयाँ मेरा 

मेरी तन्हाइयों से लिपटी है तेरी यादों की महक
मैं मैं हूँ तो मेरा मन अब कहाँ मेरा!

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