Saturday, September 10, 2011
उधेड़बुन
उसकी नज़रें अभी तक टिकी हुई थी ..............| शायद किसी का इंतज़ार है उसे ! वह यहाँ क्यों आया है ? .....मन को सीमाओं को तोड़ने में बड़ा आनंद आता है , यही कारण है की एक समयांतर पर ये पुन: उसी कार्य को करने को आतुर हो उठता है |
कितनी बार नावों से सैर किया
हर बार नाव का पतबार हाथ में ,
और नाव मझधार में
बारिशों के बीच , तूफ़ान और झंझावातों में
उप्लाता डूब गया |
ऐसा लगता है अब , सदियों से बारिश नही हुई है | नही ..| जब पौधे ही नही होंगे तो छटपटाहट कैसी होगी |कौन सी होगी ? नही , प्रकृति विषम में बस्ता ज़रूर है लेकिन विषम नही | दिल कहता है पौधे उगेंगे प्यास बढ़ेगी फिर बारिश होगी | मिटटी अंदर तक भीगेगी .......हाँ अंदर तक |
लेकिन प्यास बना रहे , ताकि अगली बारिश को आते देख आगे बढ़कर स्वागत कर सके और कहे देखो मेरे नैन अब भी वैसे ही हैं ........... देखो न , आँखे मुंद सी गयी है , अब और राह देखने को तैयार नही , शरीर रह -रहकर टूट सा जाता है |
....क्या यह अंत है ? .या फिर नयी सदी के जन्म से पहले की छटपटाहट है | मौसम और मन दोनों ही उपयुक्त है ... बस इंतज़ार है तो......तेरा ....देखना है तू कब बरसती है ?
(पल बीतता है )
.....उन शब्दों में वही लिख्खा था जो भीतर पड़ा था लेकिन भावनाओं में शायद नही |
.........आश्चर्य होता है लोगों से खुद से भी , शब्दों को पकड़कर बैठ जाते हैं |
क्या मानव का आस्तित्व शब्दों तक सीमित है ? उफ़ भावनाओं को गढ़ने का प्रयास ही क्यों किया |
......कुत्ते की आवाज़ ....उसने देखा सामने हाइवे पर ... वह पिल्ला जिंदगी से निजात पा गया |
शायद खुदा को यही मंज़ूर था |
... क्या इन् प्राणियों को दैर-ओ-हरम की ज़रूरत नही होती ?
उसका दिल बेज़ार हो उठा था
....स्वर तीखा ही क्यों न हो उसे सुनकर हम उस आत्मा के भीतर छिपी मर्म को सहज ही खोज निकालते है |शायद यही वजह है कि कुदरत ने सभी प्राणियों में भरा है |...यहाँ तक की वैसे मनुष्यों में भी जो शब्द निकाल नही सकते |याद आती है उसे
....उसकी बातें ठहरावमुक्त थी ,जो जलता है वाही प्रकाश देता है , जीवन भी एक प्रकाश है ...फिर ज़हां प्रकाश नही वहाँ जीवन कैसे मौजूद हो सकता है ...!
...मुझे तो लगता है जीवन घटनाओं में नही उसके पीछे किये गए प्रयासों में जीता है |
उसे याद आया , रामेश्वर बीमार है ....वह उसे देखने नही गया ...दिल तो कहता है
सुख जाने दो
जो वृक्ष फल नही दे सकते
देते हैं पर कष्ट आजीवन
पीते हैं लहू दूसरों को करके घायल
और जग में खुद बने रहते नूतन
फिर , आज जब हुए हैं घायल ,
तो उन्हें सुख जाने दो |
......और ...उसे कोई मानो गहरी नींद से जगा रहा था | उसकी आँखों में चमक सी दिख रही थी अब ...|
....बारिशों में भीगना अपने-आप में मज़े की बात होती है ऐसा लगता है जैसे आज कुदरत हम सबसे बहुत खुश है |....शायद इसीलिए हमें बाहर से और भीतर से भिगोरहा है | जो भी हो भीगना अच्छा लगता है |....जैसे...जैसे ... हम होली में खुशी से एक-दूसरे को भिगोते हैं जो भी हो भीगना अच्छा लगता है |भिगोने का भी तो अलग ही मज़ा है ....बारिश करके कुदरत भी आनंदित होता है , हमें भिगोकर ...|इसलिए भीगना चाहिए |
डोर टूट गयी |
सदियां बीत गयी |
आज फिर..........
पतंग ठीक है उड़ान भरने के लिए !
*****
Published in Zephyr 10.
शब्द ख़ामोशी के
सात दिनों से पिता बेड पर ही था , गहरी चोट थी पैर में .
कई बार धीरे-धीरे उठने का प्रयास करता , पर हिम्मत टूट जाती .
पुत्र जो अपने काम में व्यस्त था , उस रात डाटते हुए कहा - ' क्या पिताजी ! आप प्रयास भी नही कर सकते ,
डॉक्टर ने कितनी बार कहा है चलने को , नही तो पैर हमेशा के लिए खराब हो जायेंगे... और आप हो की बेड पर ही परे रहते हो . '
पिता सहम कर रह गया .
उस रात उसने कई दफे उठ कर चलने की चेष्टा की लेकिन पेरो की असह्य पीड़ा उसे फिर से बेड पर जाने को मजबूर कर देती . पुत्र ने सबकुछ खिडकी से देखा और झुंझलाकर सो गया .
दूसरा लड़का जो अगली सुबह ही परदेश से आया था , पिताजी को देखने .
उसने ख़ामोशी से ही पिताजी की खामोश शक्लों को पढ़ लिया .
उठा , उठकर कंधा दिया , तीन दिनों बाद ही पिताजी चलने-फिरने लग गए
लड़का पुनः परदेश चला गया
Friday, May 13, 2011
हम- तुम - अनुपम कर्ण
(1)
कुछ कदमों के फासले थे,
रह गया इधर मैं, उधर तुम
ज़माना बीच में खडा कहता रहा
हारा मैं, जीत गए तुम !
(2)
खामोश सी थी जिंदगी
हम भी चुप से रह गए
तुम ने चुप्पी तोड़ दी
और फासले फिर बढ़ गए !
(3)
कुछ बातें ..........................
कुछ किस्से......................
कुछ लम्हे .........................
कुछ यादें ..........................
...........................और मैं था !
..........................और तुम थे!
कितनी बातें ......................
कितने किस्से ...................
कुछ चाहे ...........................
कुछ अनचाहे ....................
..........................कहीं मैं था!
.........................कहीं तुम थे!
किसकी बातें .....................
किसके किस्से ..................
कितने पुराने ....................
कितने अनजाने ...............
.........................क्यों मैं था?
........................क्यों तुम थे?
Wednesday, April 20, 2011
कुछ पंक्तियाँ - सुभद्रा कुमारी चौहान
ये चंद पंक्तियाँ वाकई बचपन की यादों से बड़ी गहराई से जुड़े हैं| ये पंक्तियाँ इसलिए भी खास है क्योंकि मैंने अपनी माँ को अपनी मधुर लय में अक्सर इसे गुनगुनाते हुए सूना है|
चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥
किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥
मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥
ये पंक्तियाँ सुभद्रा जी की प्रसिद्द कविता " मेरा बचपन " से लिया गया है | जितनी उनकी कवितायें प्रेरणादायक है उससे भी कहीं ज्यादा उनकी जीवनी !
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥
किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥
मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥
Tuesday, March 29, 2011
आईना - Anupam Karn
आँख में आंसुओं को सुलगता पाया
उसने खुद से खुद को ढूंढता पाया
एक मरासिम ने आंच इस कदर दी थी
उसने सब्र को अब्र सा लुढकता पाया
रेत के मानिंद ढह गए थे जो
उनसे वख्त के आईने में एक मसीहा पाया
आज जब दीया फिर से जलने को है
उसने वख्त को आईने में भूलता पाया
वो होड़ जीत का था, ये शोर जीत का है
उसने अश्क को आईने में ढूंढता पाया !
Wednesday, February 23, 2011
मैं ...मैं हूँ तो मेरा मन, अब कहाँ मेरा ? - अनुपम कर्ण
वख्त दर वख्त दरकता है एक निशाँ मेरा
किसने आग़ी लगाई जो जल गया एक जहां
मेरा
मेरी बंसी ने ही छीनी है मेरी आवाज
को
गो तेरे किस्से बन गए एक नुमायाँ
मेरा
मेरी रूहों से छलकती है तेरी आहों की
खनक
वो तेरी खामोश सी नज़रें और एक
अंदाज़-ए-बयाँ मेरा
मेरी तन्हाइयों से लिपटी है तेरी यादों की महक
मैं मैं हूँ तो मेरा मन अब कहाँ
मेरा!
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