Wednesday, August 11, 2010
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ - देवेन्द्र आर्य
जिन्दगी लिखने लगी है दर्द से अपनी कहानी ,
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ
आज बचपन बैठकर
मुझसे शिकायत कर रहा है
किन अभावों के लिए मन
छाँव तक पहुँचा नहीं था ,
क्यों मुझे बहका दिया
कुछ रेत के देकर घरौँदे ?
मंजिलोँ की जुस्तजू को
आज तक बांचा नहीं था
क्या कहूँ मैं किस हाल में ढलता रहा हूँ
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ
अनसुनी कर दो भले
पर आज अपनी बात कह दूँ
एक अमृत - बूँद लाने
मैं सितारों तक गया हूँ
मुद्दतोँ से इस जगत की
प्यास का मुझको पता है
एक गंगा के लिए
सौ बार मैं शिव तक गया हूँ
मैं सभी के भोर के हित दीप सा जलता रहा हूँ
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ
मानता हूँ आज मेरे पाँव
कुछ थक से गए हैं
और मीलोँ दूर भी
इस पंथ पर कब तक चलूँगा ?
पर अभी तो आग बाकी है
अलावोँ को जलाओ
मैं सृजन के द्वार पर
नव भाव की वँशी बनूँगा
तुम चलो , मैं हर खुशी के साथ मिल चलता रहा हूँ ।
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ॥
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