Tuesday, December 28, 2010

तलाक - अनुपम कर्ण









शाम ढले तो अखियाँ तुझको बरबस ढूंढने लगती है
सुबह फिर अलसाई नजरें दुनिया देखने लगती है

नज़रें कहाँ-कहाँ न ढूँढी, चिराग तले अँधेरा छाया
ऋतू बसंत हो या सावन हो रह-रहकर छलकने लगती है

पहचान तुम्हारी हो या मेरी ,इसपर सर धुनना था कैसा
जो पहचान हमारी थी वो अब तो बासी लगती है

अब तो अलग- अलग हैं दोनों, नाम हमारे अलग-अलग
सोचो कितने दूर हुए क्यों अखियाँ प्यासी लगती है !

Sunday, December 5, 2010

गधे खा रहे चवनप्रास देखो - स्व.ओमप्रकाश आदित्य

इधर भी गधे हैं , उधर भी गधे हैं    
जिधर भी देखता हूँ गधे ही गधे हैं

गधे हंस रहे , आदमी रो रहा है
 हिन्दोस्तान में ये क्या हो रहा है

 जवानी का आलम गधों के लिए है
 ये रसिया ,ये बालम गधों के लिए है

 ये दिल्ली ये पालम गधों के लिए है
 ये संसार सालम गधों के लिए है

 पिलाए जा साकी ,पिलाए जा डट के
 तू व्हिस्की के मटके पे मटके पे मटके

 मैं दुनिया को जब भूलना चाहता हूँ
 गधों की तरह झूमना चाहता हूँ

घोड़ों को मिलती नही घास देखो
 गधे खा रहे चवनप्रास देखो

 यहाँ आदमी की कहाँ कब बनी थी
 ये दुनिया गधों के लिए ही बनी थी

 जो गलियों में डोले वो कच्चा गधा है
 जो कोठे पे बोले वो सच्चा गधा है

 जो खेतों में दीखे वो फसली गधा है
 जो माइक पे चीखे वो असली गधा है

 मै क्या बक गया हूँ , ये क्या कह गया हूँ
 नशे की पिनक मे कहाँ बह गया हूँ
 
 मुझे माफ करना मैं भटका हुआ था
 वो ठरॉ था भीतर जो अटका हुआ था

Saturday, November 27, 2010

काँच की बरनी और दो कप चाय ** एक बोध कथा

एक पुरानी पर असरदार लघुकथा !

जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी - जल्दी करने की इच्छा होती है सब कुछ तेजी  से पा लेने की इच्छा होती है ,और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं उस समय ये बोध कथा , " काँच की बरनी और दो कप चाय " हमें याद आती है । 
दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं ...
उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी ( जार ) टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची ... 
उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई हाँ ... आवाज आई ...
फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे - छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये धीरे - धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी समा गये ,
फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा क्या अब बरनी भर गई है छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ ... कहा 
अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले - हौले उस बरनी में रेत डालना शुरु किया वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे ... 
फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना हाँ 
.. 
अब तो पूरी भर गई है .. सभी ने एक स्वर में कहा .. 
सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में डाली चाय भी रेत के बीच स्थित थोडी़ सी जगह में सोख ली गई ... 
प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया – 
इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो .... 
टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान परिवार बच्चे मित्र स्वास्थ्य और शौक हैं 
छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी कार बडा़ मकान आदि हैं और 
रेत का मतलब और भी छोटी - छोटी बेकार सी बातें मनमुटाव झगडे़ है .. 

अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचतीया कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते रेत जरूर आ सकती थी ... ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है ...
यदि तुम छोटी - छोटी बातों के पीछे पडे़ रहोगे 
और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा ...
मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है । अपने बच्चों के साथ खेलो बगीचे में पानी डालो सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ 
घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फ़ेंको मेडिकल चेक - अप करवाओ ... 
टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो वही महत्वपूर्ण है ... पहले तय करो कि क्या जरूरी है 
... 
बाकी सब तो रेत है .. छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे ..
अचानक एक ने पूछा सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि " चाय के दो कप " क्या हैं ?
प्रोफ़ेसर मुस्कुराये बोले .. मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी  ने क्यों नहीं किया ...
    इसका उत्तर यह है कि जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की     जगह हमेशा होनी चाहिये । 

Sunday, November 7, 2010

मदर हूँ मैं -अनुपम कर्ण

सहर हूँ मैं ,
तुम्हारे दर्द के हर रात का 
सहर हूँ मैं 

धीमे-धीमे दबे पाँव 
घंटो तुझे देखती रहती 
तुम्हारे सोने के  बाद 
ताकि ,कोई मच्छर न बैठने पावे ,वो 
नज़र हूँ मैं !

तमाम जिंदगी चाहे वो अच्छे रहे या बुरे 
खुद मट्ठा खाती रही 
ताकि तुझे दही खिला सकूँ , हाँ 
शज़र हूँ मैं !

मैं जानती हूँ ,
तुम्हारे लिए तुम्हारे बीवी ,तुम्हारे बच्चे ,
तुम्हारा आफिस ही तुम्हारा सबकुछ है 
मैं कुछ भी नही !
और यदि कुछ हूँ तो कितना 
कितना..? बता पाओगे तुम !
अपनी सोसाइटी अपना स्टेट्स बनाए रखने के लिए 
एक बार फिर से तुम दही खाओगे...और ...
तुम, तुम्हारे बच्चे दही खाते रहे 
इसलिए मैं मट्ठा खाऊँगी 
और , चुप रहूंगी....आखिर 
मदर हूँ मैं    



:- On Vatvriksh
  


Tuesday, November 2, 2010

कुछ पंक्तियाँ - जानकी बल्लभ शास्त्री

कहाँ मिले स्वर्गिये सुमन 
मेरी दुनिया मिटटी की ,
विहस बहन क्यों तुझे सताऊं
कसक बताकर जी की 

बस आखिरी विदा लेता हूँ 
आह यही इतना कह 
मुझसा भाई हो न किसी का 
तुझ सी बहन सभी की !!


____________________________
 मैं मगन मझधार में हूँ , तुम कहाँ हो !


दीप की लौ अभी ऊँची , अभी नीची
पवन की घन वेदना , रुक आँख मीची
अन्धकार अवंध , हो हल्का की गहरा
मुक्त कारागार में हूँ , तुम कहाँ हो
मैं मगन मझधार में हूँ , तुम कहाँ हो !

Monday, November 1, 2010

कुछ पंक्तियाँ - प्रसाद

जो घनीभूत पीड़ा थी 
मस्तक में स्मृति सी छाई 
दुर्दिन में आंसू  बनकर 
वह आज बरसने आयी 

शशिमुख पर घूँघट डाला 
अंचल में नैन छिपाए 
जीवन की गोधुली में 
कुतूहल से तुम आये 

(-आंसू )



बीती विभावरी जाग री !

                    अम्बर पनघट  में डुबो रही                  
                      तारा घाट उषा नागरी |

खग-कुल  कुल-कुल सा बोल रहा
किसलय का अंचल डोल रहा  ,

                  लो यह लतिका भी भर लायी
                  मधु मुकुल नवल रस गागरी |

अधरों में राग अमद पिए
अलको में मलयज बंद किये

                  तू अब तक सोई है आली
                  आँखों में भरे विहाग री |

Saturday, October 30, 2010

ज़मीं को ना बांटों,-Anjana (Gudia)

Gudiaji की  कलम  से : -

कब सरहदों से 
फ़ायदा हुआ इस ज़मीं को?
अभी भी दिल नहीं भरा,
बार-बार बाँट कर इस ज़मीं को?

सरहदें जैसे बदनुमा दाग़ हैं 
इस ज़मीं के चेहरे पर,
खुदगर्ज़ी के चाकू से फिर
ज़ख़्मी ना करो इस ज़मीं को

अगर टूट कर ही निजात मिलती,
तो सरहद पार सिर्फ खुशियाँ ही दिखती, 
सबक लो तारीख़ से
मत दो सज़ा और इस सरज़मीं को 

ज़मीं को ना बांटों,
दिलों को जोड़ लो,
मिल के रिझाओ कामयाबी को,
इतेहाद से सजाओ इस ज़मीं को 

मुद्दा नई सरहद का नहीं
खुशियों का हो, अमन का हो 
गुलों से खूबसूरत चेहरे खिल जाएं,
जन्नत फिर से बनायें इस ज़मीं को

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Wednesday, October 27, 2010

कुछ पंक्तियाँ - बच्चन


 मैं एक जगत को भुला 
मैं भुला एक ज़माना 
  कितने घटना चक्रों में , 
  भुला मै आना-जाना 
 पर दुःख-सुख की वह                                           
 सीमा, मैं पाया साकी 
जीवन के बाहर जाकर 
जीवन में तेरा आना


कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी ,
 कहाँ गयी सुरभित हाला  
कहाँ गया स्वप्निल मदिरालय 
कहाँ गया स्वर्णिम प्याला 
पीनेवालों ने मदिरा का मूल्य
हाय कब पहचाना 
फुट चूका जब मधु का प्याला ,
 टूट  चुकी जब मधुशाला !


सखि यह रागों की रात नही सोने की                                                         
बात जोहते इस रजनी की वज्र कठिन दिन बीते 
किन्तु अंत में दुनिया हारी और हमीं तुम जीते 
नरम नींद के आगे अब क्यों आँखें पंख झुकाए
सखि यह रातों  की रात नही सोने की !   


और अंत में 


इस पार प्रिये मधु है तुम हो 
उस पार न जाने क्या होगा !

Friday, October 22, 2010

तेरे बगैर भी मैं जी लेता हूँ - अनुपम कर्ण

                          






चलो कुछ तो था 
की, आज भी याद आता हूँ 
जो , तेरी डायरी के 
पन्नों में उभर आता हूँ 

दिन तो आफिस में 
आराम से गुजर जाता है 
रात की सर्द ख़ामोशी में 
तेरी यादों को ओढ़ लेता हूँ 

शाम को बालकनी में
महसूस होता है ,
धुआं -धुआं सा
कभी ये तेरी बातों से आजिज थे
अब तेरी यादों से लिपटे .....

किचेन में 
चाय बनाते हुए 
बेशक , कोई आवाज़ नही आती 
पर , कुछ प्रतिध्वनिया 
टूटे हुए प्रेमरस का कचड़ा 
घेर लेता है मुझे 
तुम कभी लौटती 
तो देख पाती 
तेरी कमी गुसिल तो नही , लेकिन 
तेरे बगैर भी मैं जी लेता हूँ

Wednesday, October 20, 2010

कुछ पंक्तियाँ - कैफी आज़मी

कभी जमूद कभी सिर्फ इन्त्शार  सा है
 जहां को अपनी तबाही का इंतज़ार सा है

मनु की मछली न कश्ती की नूर और ये फज़ा 
कि कतरे-कतरे में तूफ़ान बेकरार सा है 

मैं किसको अपने गिरेबान का चाक दिखलाऊं 
कि आज दामने-यजदान  भी तार-तार सा है 

सजा सवार के जिसपे हज़ार नाज़ किये 
उसी पे खालिक-ए-कौनेन भी शर्मशार सा है

कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले 
उस इन्कलाब का जो आज तक उधार सा है !! 

Friday, October 15, 2010

फिर हाथ हिलने लगते हैं - अनुपम कर्ण




आँखों के सामने 
गिरता है डब्लू टी सी 
कानो में गूंजता है 
२६/११ के बंदूकों की आवाज़ 
यादें ताज़ा कर देती है ये मेरियट होटल की 

सपनो में जब 
इराक का सफर करता हूँ 
एक भी घर नही मिलता 
शुकुन-ओ-चैन का 
फिर लौटता हूँ , मैं 
फिलिस्तीन , तालिबान , पाकिस्तान 
होते हुए कश्मीर को 
सुनता हूँ तिब्बत के बौद्ध-भिक्षूओं की मौन आवाजें 

लगता है
हर जगह एक चीख है
जो हर मौत के साथ 
दबा दी जाती है 
पर , मौत की चीखें 
आसानी से नही दबते 
अपनी प्रतिध्वनियों के साथ
और  विकराल हो जाते हैं 

इससे घबराकर मैं 
कानो को ,  आँखों को 
बंद कर लेता हूँ 
फिर हाथ हिलने लगते हैं  

Wednesday, October 6, 2010

शब्द ख़ामोशी के - अनुपम कर्ण


सात दिनों से पिता बेड पर ही था , गहरी चोट थी पैर में .
कई बार धीरे-धीरे उठने का प्रयास करता , पर हिम्मत टूट जाती .

पुत्र जो अपने काम में व्यस्त था , उस रात डाटते हुए कहा - ' क्या पिताजी ! आप प्रयास भी नही कर सकते , 
डॉक्टर ने कितनी बार कहा है चलने को , नही तो पैर हमेशा के लिए खराब हो जायेंगे... और आप हो की बेड पर ही परे रहते हो . '
पिता सहम कर रह गया .
उस रात उसने कई दफे उठ कर  चलने की चेष्टा की लेकिन पेरो की असह्य पीड़ा उसे फिर से बेड पर जाने को मजबूर कर देती . पुत्र ने सबकुछ खिडकी से देखा और झुंझलाकर सो गया . 

दूसरा लड़का जो अगली सुबह ही परदेश से आया था , पिताजी को देखने .
उसने ख़ामोशी से ही पिताजी की खामोश शक्लों को पढ़ लिया .
उठा , उठकर कंधा दिया , तीन दिनों बाद ही पिताजी चलने-फिरने लग गए 
लड़का पुनः परदेश चला गया 





Tuesday, September 28, 2010

यों ही खिल जाए मेरे लब पे वो हंसी की तरह - मनु गौतम



वो मेरी सांस में घुलता है जिंदगी की तरह 
वो जो मिलता है मुझसे एक अजनबी की तरह 

उसकी यादें भी उतर आती है बारिश जैसे 
उसका गम आँख में पलता भी है मोती की तरह 

यों ही वो ज़िक्र करे और मुझे हिचकी आये 
यों ही खिल जाए मेरे लब पे वो हंसी की तरह 

Wednesday, September 22, 2010

जो सामने है , वही जिंदगी नहीं होती - विपिन जैन

                                               कभी जो आँख में ठहरी नमी नहीं होती
                                               हमारी सांस में उतरी खुशी नहीं होती 

                                               भरी निगाह में जो डबडबाती लगती है 
                                               दिलों की क्यों वो कभी रौशनी नहीं होती 

                                               सभी का होता है अपना सफर जमाने में 
                                               हरेक धार तो फिर भी नदी नहीं होती 

                                               शहर को सिर्फ मुझी से शिकायतें हैं बहुत 
                                               मगर बताइये , किसमे कमी नहीं होती 

                                              ये और बात है किसका नसीब कैसा है 
                                              जहां में वर्ना कहाँ बेबसी नहीं होती 

                                              कभी न देखी सुनी , वो भी जिंदगी है यहाँ 
                                              जो सामने है , वही जिंदगी नहीं होती !

Thursday, September 16, 2010

लोग थे, लोगों में बाज़ार कहाँ थे पहले - अखिलेश तिवारी

जिंदगी के ये खरीदार कहाँ थे पहले
लोग थे, लोगों में बाज़ार कहाँ थे पहले

वो जो एक दरिया था , वो कभी का रेत हुआ
ये जो अब पूल है , ये बेकार कहाँ थे पहले

बस वही एक ही तहरीर है चेहरा - चेहरा
ये नए दौर के अखबार कहाँ थे पहले

आईने ज़ख़्मी है , पथराव का वो आलम है
अपने खो जाने के आसार कहाँ थे पहले

दिल धड़कने की सदा रोज तो नही आती
या की हम खुद से खबरदार कहाँ थे पहले

नाखुदा इसलिए पेश  आये खुदाओं की तरह
हाथ 'अखिलेश' के पतवार कहाँ थे पहले

कितना मुश्किल है कोई बात छिपाए रखना - मनु गौतम

यूँ तो मुश्किल  है उम्र भर का निभाए रखना
फिर भी एक तार मुहब्बत का बचाए रखना

फिर किसी बात से वो बात निकल आएगी
कितना मुश्किल है कोई बात छिपाए रखना

अजनबियत का धुंआ आँख जलाता है मगर
हो सके अगर तुमसे आँख मिलाए रखना

जबकि सच है मेरे बर्दाश्त के बाहर ऐ दोस्त
वहां का जाम ही होठों से लगाए रखना


Tuesday, September 7, 2010

हौसला भी उड़ान देता है :- अशोक 'अंजुम '

कौन सीरत पे ध्यान देता है
आईना जब बयाँ देता है

मेरा किरदार इनदिनों ज़माने में
बारहा इम्तिहान देता है

पंख अपनी ज़गह पे वाजिब है
हौसला भी उड़ान देता है

जितने  मगरूर हुए जाते हैं
मौला उतनी ढलान देता है

बीती बातों को भुलाकर वो
आज फिर से जुबां देता है

तेरे बदले में किस तरह ले लूँ
वो तो सारा जहां देता है !

Friday, September 3, 2010

तेरी तपिश में जला हूँ , कहीं पनाह नहीं - मनु गौतम

मैं तुमसे दूर भी जाऊँ तो मुझको राह नहीं
तेरी तपिश में जला हूँ , कहीं पनाह नहीं

कहा बस इतना ही उसने उरुज पे लाकर
यहाँ पे ला के गिराना कोई गुनाह नहीं

धड़क उठेगा अभी देखना ये दिल कमबख्त
हजार टुकड़ों में टूटा है पर तबाह नहीं
 
वो शख्स जिसपे हमने दिल ओ जान वार दिए
वो हमखयाल तो है , पर मेरा हमराह नहीं
 
अब तो बस मैं हूँ , तू है और मांझी के फ़राज़
अब तमन्ना के सराबों की  दिल  को  चाह नहीं !

Wednesday, September 1, 2010

26/11 की कलम से - डॉ. स्वदेश कुमार भटनागर

खौफ के जब से हम हवाले हुए /
जैसे हम खुद पे लटके ताले हुए //

फिर रही है दुआएं भूखी-सी /
देवताओं के तौर काले हुए //

कैसे सच बोले आईना हमसे  ,
आईनों की जुबां पे छाले हुए //

यूँ सियाहपोश कर दिया सूरज ,
धुंध की शक्ल में उजाले हुए //

कुछ तो आँचल की ओट में था ' दिया '
कुछ इवा भी थी लौ संभाले हुए //

खून में भीगती रहेगी सदी 
कह रहे हैं शिगाफ डाले हुए //

आज मजहब से मिलके ये पूछें /
वख्त की कैसे झुक गयी आँखें //

इक मरा लफ्ज़ हाथ में लेकर ,
हम दरिंदो पे कब तलक सोचें //

रौशनी पे अँधेरा भारी है /
हादसों की ज़बान में गर बोले //

ज़ुल्म की उम्र लगती है लम्बी
अमन पर पड़ा इक कफ़न देखें //

दूब की तरह तुम रहो ऐ ' स्वदेश '
लोग जो चाहे तुम्हे वो समझे //

Monday, August 30, 2010

मेरा किरदार जब भी जिंदगी से बात करता है -अशोक अंजुम

बड़ी मासूमियत से सादगी से बात करता है
मेरा किरदार जब भी जिंदगी से बात करता है

बताया है किसी ने जल्द ही ये सूख जाएगी
तभी से मन मेरा घंटों नहीं से बात करता है

कभी जो तीरगी मन को हमारे घेर लेती है
तो उठ के हौसला तब रोशनी से बात करता है

नसीहत देर तक देती है माँ उसको जमाने की
कोई बच्चा कभी जो अजनबी से बात करता है

मैं कोशिश तो बहुत करता हूँ उसको जान लूँ लेकिन
वो मिलने पर बड़ी कारीगरी से बात करता है

शरारत देखती है शक्ल बचपन की उदासी से
ये बचपन जब कभी संजीदगी से बात करता है

Wednesday, August 11, 2010

मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ - देवेन्द्र आर्य


जिन्दगी लिखने लगी है दर्द से अपनी कहानी ,
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ


आज बचपन बैठकर
मुझसे शिकायत कर रहा है
किन अभावों के लिए मन
छाँव तक पहुँचा नहीं था ,
क्यों मुझे बहका दिया
कुछ रेत के देकर घरौँदे ?
मंजिलोँ की जुस्तजू को
आज तक बांचा नहीं था


क्या कहूँ मैं किस हाल में ढलता रहा हूँ
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ

अनसुनी कर दो भले
पर आज अपनी बात कह दूँ
एक अमृत - बूँद लाने
मैं सितारों तक गया हूँ
मुद्दतोँ से इस जगत की
प्यास का मुझको पता है
एक गंगा के लिए
सौ बार मैं शिव तक गया हूँ

मैं सभी के भोर के हित दीप सा जलता रहा हूँ
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ

मानता हूँ आज मेरे पाँव
कुछ थक से गए हैं
और मीलोँ दूर भी
इस पंथ पर कब तक चलूँगा ?
पर अभी तो आग बाकी है
अलावोँ को जलाओ
मैं सृजन के द्वार पर
नव भाव की वँशी बनूँगा

तुम चलो , मैं हर खुशी के साथ मिल चलता रहा हूँ ।
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ॥

Monday, June 28, 2010

झरते हैं शब्दबीज - बुद्धिनाथ मिश्र

आहिस्ता -आहिस्ता
एक- एक कर
झरते हैं शब्दबीज
मन के भीतर !
हरे धान उग आते
परती खेतों में
हहराते सागर हैं
बंद निकेतोँ में
धूप में चिटखता है
तन का पत्थर !
राह दिखाते सपने
अंधी खोहो में
द्रव सा ढलता मैं
शब्दों की देहोँ में
लिखवाती पीड़ा है
हाथ पकड़कर !
फसलें झलकेँ जैसे
अँकुरे दानों में
आँखों के आँसू
बतियाते कानों में
अर्थों से परे गूँजता
मद्धिम स्वर !

Thursday, June 10, 2010

रफ्ता-रफ्ता द्वार से यूँ ही गुजर जाती है रात -अश्वघोष


रफ्ता-रफ्ता द्वार से यूँ ही गुजर जाती है रात
मैने देखा झील पर जाकर बिखर जाती है रात

मैं मिलूंगा कल सुबह इस रात से जाकर जरूर
जानता हूँ , बन संवरकर कब , किधर जाती है रात

हर कदम पर तीरगी है , हर तरफ एक शोर है
हर सुबह एकाध रहबर कत्ल कर जाती है रात

जैसे बिल्ली चुपके चुपके सीढ़ियाँ उतरे कहीं
आसमाँ से जिंदगी मे यूँ ही उतर जाती है रात

एक चिड़िया कुछ दिनों से पूछती है अश्वघोष
सिर्फ इस आहट को सुनके क्यों सिहर जाती है रात

Friday, May 28, 2010

Hostel memoirs : पर , रंग न रीता होली का !

  दिल जब याद उन दिनों को करता है
 बातें बार बार करता है


**पहला SESSIONAL **

पहला SESSIONAL ,EXAM नहीं था
था वो कोई आदमखोर

हम भी कहाँ भागने वाले
यूद्ध छेड़ दिया घनघोर


सारी रात डटे रहे थे हम
लेकर कलम रूपी औजार

कुछ  तो   मथुरा दास  बन गए
कुछ सुनील सन्नी जैकी श्राफ

** कुछ बातें कुछ शर्तेँ **

पूछो न , क्योँ हम लड़ते थे
वो , बात बात पर अड़ते थे

कृष्ण जन्मभूमि असली है या
नकली , फैसला रात भर में करते थे

जोश जोश में होश नहीं था
होश नहीं था दिल क्योँ फिर बेहोश नहीं था

शर्त लगी , वो अमृतसर जाने की
मत पूछो , क्योँ ? पैदल जाने की

दो खेमोँ में लगी शर्त थी
शब आधी , गीली पीली हरी शर्त थी

चल पड़े सभी , नहीं किसी ने भी किया इनकार
सबने सोचा हमसे पहले , उतर जाएगा इसका बुखार

**<बर्थ डे >**

किसी के बर्थ डे पे किसी को पीटना
था ये होस्टल का अपना रीत

रीत-वीत सब हवा हो जाती
वो ज्योँहि दिखता पवन मीत

**<नाम>**

सबके सब जाने अनजाने
नए नए नामों से जाने जाते

लाल बादशाह , नेताजी चडड्डी
तो कुछ आए गए निकले फिसड्ढी

**<होली >**

बेरंग पानी से खेल खेलकर
क्या रंग था निखड़ा होली का

दिल रीता , होस्टल रीता
पर , रंग न रीता होली का   !

Thursday, May 27, 2010

सलीका बाँस को बजने का जीवन भर नहीं होता - JAYKRISN ROY

सलीका बाँस को बजने का जीवन भर नहीं होता
बिना होठोँ के बंसी का भी स्वर नहीं होता

किचन में माँ बहुत रोती है पकवानोँ की खुशबू में
किसी त्योहार पर बेटा जब उसका घर नहीं होता

ये सावन गर नहीं लिखता हसीँ मौसम के अफसाने
कोई भी रंग मेँहदी का हथेली पर नहीं होता

किसी भी बच्चे से उसकी माँ को वो क्योँ छीन लेता है
अगर वो देवता होता तो फिर पत्थर नहीं होता

परिँदे वो ही जा पाते हैं ऊँचे आसमानोँ तक
जिन्हेँ सूरज से जलने का तनिक भी डर नहीं होता

अपनी गजलों पर हमेशा तालियाँ अच्छी लगी - JAYKRISN ROY TUSHAR


फूल जंगल झील पर्वत घाटियाँ अच्छी लगी
दूर तक बच्चोँ को उड़ती तितलियाँ अच्छी लगी

जागती आँखों ने देखा इक मरुस्थल दूर तक
स्वप्न में जल में उछलती मछलियाँ अच्छी लगी

मूँगे माणिक से बदलते हैं कहाँ किस्मत के खेल
हाँ , मगर उनको पहनकर उँगलियाँ अच्छी लगी

देखकर मौसम का रुख तोतोँ के उड़ते झुंड को
धान की लंबी सुनहरी बालियाँ अच्छी लगी

दूर थे तो सबने मन के बीच सूनापन भरा
तुम निकट आए तो बादल बिजलियाँ अच्छी लगी

उसके मिसरे पर मिली जब दाद तो मैं जल उठा
अपनी गजलों पर हमेशा तालियाँ अच्छी लगी

जब जरूरत हो बदल जाते हैं शुभ के भी नियम
घर में जब चूहे बढ़े तो बिल्लियां अच्छी लगी

Friday, May 21, 2010

बरखा की भोर - डॉ. देवव्रत जोशी

बनपाँखी बूँदोँ का शोर :
बरखा की भोर।

सूरज दिखाई नहीं देता साफ
अधजागा लेटा हूँ ओढकर लिहाफ
नाच रहे हैं अब तक आँखों में सपनों के भोर ।

मेघोँ की पँखुरियोँ में बंदी किरणोँ के छन्द धरती से उठकर फैली है आकाशोँ में माटी की गंध
स्नानवती दिशाएं समेट रहीं
आँचल के छोर ।

बनपाँखी बूँदोँ का शोर :
बरखा की भोर।

Thursday, May 20, 2010

आदमी को साँप भी डसता नहीं क्योँ आजकल -सीताराम गुप्ता

इंसानियत से आदमी सजता नहीं क्योँ आजकल
हैवानियत पर वार भी करता नहीं क्योँ आजकल

जब से पहनी और ओढी है सकाफत दोस्तो
आदमी से आदमी मिलता नहीं क्योँ आजकल

हर सिम्त है बज्मे तरन्नुम अँजुमन दर अँजुमन
साजे दिलकश पर कहीँ बजता नहीं क्योँ आजकल

तरबतर तेजाब में चीनी व्यँजन चुन लिए
हलवा पूरी खीर अब बनता नहीं क्योँ आजकल

ऊँची ऊँची मीनारेँ अब उठ रही है हर जगह
चावल हर हाँडी में फिर पकता नहीं क्योँ आजकल

जिस जगह देखो फिजा में गुँजती है गोलियाँ
अब धमाकों से कोई डरता नहीं क्योँ आजकल

काँन्टेक्ट लेँस अब मुल्क मेँ हर मुअल्ल्जि के पास है
आँख से फिर भी हमें दिखता नहीं क्योँ आजकल

आदमी की बात ही चुभती थी पैने डँक सी
आदमी को साँप भी डसता नहीं क्योँ आजकल

Wednesday, May 19, 2010

मुल्क मेरा इन दिनों शहरी करण की ओर है -JAYKRISHN RAY TUSHAR


ये नहीं पूछो कहाँ किस रंग का किस ओर है
इस व्यवस्था के घने जंगल में आदमखोर है

मुख्य सड़कों पर अँधेरे की भयावहता बढ़ी
जगमगाती रोशनी के बीच कारीडोर है

आत्महत्या पर किसानों की , सदन मे चुप्पियाँ
मुल्क मेरा इन दिनों शहरी करण की ओर है

भ्रष्टशासन तँत्र की नागिन बहुत लंबी हुई
है शरीके जंग कुछ तो नेवला या मोर है

कठपुतलियाँ हैं वही बदले हुए इस मंच पर
देखकर यह माजरा दर्शक बेचारा बोर है

नाव का जलमग्न होना चक्रवातोँ के बिना
है ये अंदेशा कि नाविक का हुनर कमजोर है

मौसमोँ ने कह दिया हालात सुधरे हैं मगर
शाम धुँधली दिन कळँकित रक्तरँजित भोर है

इन पतंगो का मुश्किल है उड़ना दूर तक
छत किसी की हाथ कोई और किसी की डोर है

किस तरह सदभावना के बीज का हो अँकुरण
एक है गूंगी पड़ोसन दूसरी मुँह जोर है

नाव पर चढ़ते समय भी भीड़ मे था शोरगुल
अब जो चीखेँ आ रही वो डूबने का शोर है

जिन्दगी लिखने लगी है - देवेन्द्र आर्य

जिन्दगी लिखने लगी है दर्द से अपनी कहानी
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ

आज बचपन बैठकर
मुझसे शिकायत कर रहा है
किन अभावों के लिए मन
छाँव तक पहुँचा नही था,
क्यूँ मुझे बहका दिया
कुछ रेत के देकर घरौँदे
मंजिलोँ के जुस्तजू को
आज तक बाँचा नही था

क्या कहूँ मैं किस तरह किस हाल में ढलता रहा हूँ
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ

अनसुनी कर दो भले
पर आज अपनी बात कह दूँ
एक अम्रित बूँद लाने
मैं सितारों तक गया हूँ
मुद्यतोँ से इस जगत की
प्यास का मुझको पता है
एक गंगा के लिए
सौ बार मै शिव तक गया हूँ

मैं सभी के भोर के हित दीप सा जलता रहा हूँ
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ

मानता हूँ आज मेरे
पाँव कुछ थक से गये हैं
और मीलों दूर भी
इस पंथ पर कब
तक चलूँगा
पर अभी तो आग बाकी है
अलावोँ को जलाओ
मैं स्रिजन के द्वार पर
नव भाव की वँशी बनूँगा

तुम चलो मैं हर खुशी के साथ मिल चलता रहा हूँ
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ

पेड़ - गुलजार


मोड़ पे देखा है , बूढ़ा सा एक पेड़ कभी
मेरा वाकिफ है सालों से मैं उसे जानता हूँ

जब मैं छोटा था तो एक आम उड़ाने के लिए
परली दीवार से कंधो पे चढ़ा था उसके
जाने दुखती हुई किस साख से जा पाँव लगा
धाड़  से फेंक दीया था मुझे नीचे उसने

और जब हामला थी बेवा तो हर दिन
मेरी बीवी की तरफ केरियाँ फेकी थी इसी ने






वख्त के साथ सभी फुल सभी पत्ते गए
तब भी जल जाता था जब मुन्ने से कहती बीबा
हाँ उसी पेड़ से आया है तू पेड़ का फल है
अब भी जल जाता हूँ जब खांसकर कहता है
क्यों सर के सभी बाल गए

सुबह से काट रहे हैं वो कमिटी वाले
मोड़ तक जाने की हिम्मत नहीं होती मुझको

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Friday, May 14, 2010

याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे- अहमद फराज

ऐसे चुप हैं, कि यह मंजिल की कड़ी हो जैसे
तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे

अपने ही साए से हर गाम लरज जाता हूँ
रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे

कितने नादां हैं तेरे भूलने वाले कि तुझे
याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे







तेरे माथे की शिकन पहले भी देखी थी मगर
यह गिरह अब के मेरे दिल में पड़ी हो जैसे             

मंजिलेँ दूर भी है, मंजिलेँ नजदीक भी है
अपने ही पाँव में जंजीर पड़ी हो जैसे

Sunday, May 9, 2010

हाथ से हर एक मौके को निकल जाने दिया राजेश रेडडी

हाथ से हर एक मौके को निकल जाने दिया
हमने ही खुशियों को रंजो गम में ढल जाने दिया

जीत बस इक वार की दूरी पे थी हमसे मगर
दुश्मनोँ को हमने मैदां में संभल जाने दिया

उम्र भर हम सोचते ही रह गए हर मोड़ पर
फैसलाकुन सारे लम्होँ को फिसल जाने दिया

तुम तो इक बदलाव लाने के लिए निकले थे फिर
खुद को क्योँ हालात के हाथों बदल जाने दिया

हम भी वाकिफ थे ख्यालोँ की हकीकत से मगर
हमने भी दिल को ख्यालोँ से बहल जाने दिया

रफ्ता रफ्ता बिजलियोँ से दोस्ती सी हो गई
रफ्ता रफ्ता आशियाना हमने जल जाने दिया

टालते हैं लोग तो सर से मुसीबत की घड़ी
हमने लेकिन कामयाबी को भी टल जाने दिया

Saturday, May 8, 2010

फिर हरे होने लगे जख्म पुराने कितने- पूनम कौसर

उनको देखा तो पलट आए जमाने कितने .
फिर हरे होने लगे जख्म पुराने कितने

मशवरा मेरी वसीयत का मुझे देते हैं
हो गए हैं, मेरे मासूम सियाने कितने

मेरे बचपन की वो बस्ती भी अजब बस्ती थी
दोश्त बन जाते थे इक पल में बेगाने कितने

उनकी तस्वीर तो रख दी है हटाकर लेकिन
फिर भी कहती है यह दीवार फसाने कितने

कितनी सुनसान है कौसर अब इन आँखो की गली
इनमें बसते थे कभी ख्वाब सुहाने कितने !

मेरा नया घर

मेरे नये घर में
पत्नी बच्चे और मैं
बड़े सुकून से रहते हैं

मैने यह नया घर बसाया है
पुराने घर मे सुकून नहीं था
बूढ़े माँ बाप थे
मिलने जुलने वाले रिश्तेदार थे
जो दुनिया जहान की बातें करके
हमारे जीवन मे व्यवधान डालते थे

माँ बाप खाँसते खाँसते घर भर देते थे
पल पल पर आवाज देते थे
दीवारोँ का सहारा लेकर चलते थे
और पेंट खराब कर देते थे

My new house 


My new house

 Wife, children and I
 Large peaceful living



I have built this new house

 Comfort in the old house was not 
The old parents wereMingle with people
 who had relatives 
World in which things of the world
 by Disruption in our lives were put



Parents used to coughing, coughing 

throughout the house
 Every moment the voice used to Moved
 with the support of wall
 Would spoil and paint
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