Saturday, July 9, 2016

सच को बुनने जैसा कुछ!



देखता हूँ, पांडिचेरी के इस औरो बीच पर
रेत से खेलती उस छोटी सी लड़की को,
हर बार अलग शक्लोसूरत की, घर जैसा बनाकर कुछ  
लहरों का इंतज़ार करती है,
पुन: नए सिरे से नयी शक्ल....
कितनी महिलाएं और कितने लोग ऐसा सोच पाते हैं?
वख्त से आगे खड़े होकर
वख्त के आने का इंतज़ार
सच को बुनने जैसा कुछ!   

बारहा सच को बुनने की कोशिश की,
कुछ यादों की पोटली से,
कुछ परकटे ख़्वाबों से,
कुछ मरासिम से,
घर और घरौंदे का फर्क इत्ता सा ही होता है,

एक सच से बुनते हैं, एक ख्वाब से!

Monday, December 24, 2012

उदास पानी






वो देर तक आईने में
चेहरा टटोलती रही
उभरते हुई गड्ढे
और झुर्रियों को पाटने में,
हाँ, उसने एक उम्र बिताई थी!
याद नही, कब पिछली बार
उसने चेहरे से बातें की थी,
कभी उससे पूछा हो,
ये उदासी क्यूँ?
अहह! इस उदासी को
बयाँ करती वो झुर्रियाँ
अब खाई बन चुकी थी!

Monday, October 15, 2012

मैं जानता हूँ, यही सच है! - A perception



















मेरे ख़्वाबों के टुकड़ों को बिखेर कर देखना

शायद कोई टुकड़ा तुम्हारा भी हो!

_______


मैंने बारहा अपना आस्तित्व मिटाने की कोशिश की|

पर आस्तित्व विहीन होने के बजाय,

और मजबूत होता गया|

पीछे मूड़ के देखता हूँ, तो

असल में जिसे मैंने खोना चाहा था,

वो खोना नही था!

अजीब लगता है पर,

मैं जानता हूँ, यही सच है!

खोना भी पाने जैसा होता है|

अगर हम खोने के सिमटते दायरे को देख सकें,

तो पाने का बढ़ता दायरा साफ़ नज़र आने लगता है|

पर उलझनें तब दुखद अहसास देती है,

जब हमारी खुशी इन दायरों से परे,

कहीं और अटक जाती है|

क्या खोया? क्या पाया?


कितना अजीब है?

पाने के लिए थमना पड़ता है

समग्र नही व्यग्र होकर,

और थमना या रुकना क्या खोना नही है?

इसलिए, खोना या पाना शायद

हमारे अहसास से इतर कुछ भी नही!

हाँ, अजीब है, पर,

मैं जानता हूँ, यही सच है!
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